Tuesday 28 December 2010

ज़रा शर्म करो.............




अंबिकापुर में स्वास्थ्य विभाग करोड़ों रुपये खर्च कर जिला अस्पताल की सुविधाएं बढ़ाने की कोशिश कर रही है...लेकिन इसी अस्पताल के सामने एक व्यक्ति इलाज के अभाव में तड़प तड़प दम तोड़ देता है और कोई भी उसकी सुध नहीं लेता है...यहां तक की उसकी लाश को देखकर भी लोग अनदेखा करते गये...आखिरकार जब पुलिस को इस बारे में सूचना दी गई तब कहीं जाकर लाश को सड़क से हटाया गया और इस दौरान पांच घंटे तक एक व्यक्ति की लाश यूं ही भरे बाजार में लावारिस सी पड़ी रही।
३०० बिस्तरों वाले सुपर स्पेशलिटी का दर्जा प्राप्त अंबिकापुर जिला अस्पताल में कुछ दिनों पहले ही मुख्यमंत्री रमन सिंह ने 76 लाख रुपये की लागत से ओपीडी भवन का उद्घाटन किया। इसके पीछे सरकार की ये सोच सबके सामने रखी गई की नये ओपीडी भवन में ज्यादा मरीजों को देखा जा सकेगा। दरअसल अस्पताल की बाहरी साज सज्जा करके इसको आईएसओ की मान्यता दिलाने की पूरी कोशिश की जा रही है। तय है इसमें अस्पताल प्रबंधन सफल भी हो जायेगा, लेकिन सवाल ये है की आखिरकार ये सब किसके लिए, जवाब आयेगा मरीजों के लिए...लेकिन हकीकत तो ये है की यहां मरीजों की कोई सुनवाई ही नहीं है...यकीन ना आये तो इस लाश को देखिये जो पांच घंटे से इसी अस्पताल के सामने से होकर गुजरने वाली सड़क पर पड़ी है...इस व्यक्ति को गैंगरीन की बीमारी थी, पैसे के अभाव में ये इलाज नहीं करा पाया और आखिरकार अस्पताल के सामने ही इसने अपना दम तोड़ दिया।
गैंगरीन की बीमारी की वजह से इस व्यक्ति का पैर सड़ गया था और कई दिनों से ये व्यक्ति इसी अस्पताल में अपना इलाज कराने की कोशिश कर रहा था, लेकिन मरीजों की सेवा करने का दावा करने वाले जिला अस्पताल में इस मरीज के लिए जगह की कमी थी और आखिरकार इलाज के इंतजार में जीवन की तलाश करता ये शख्स मौत की नींद सो गया.....अस्पताल के बाहर सड़क पर पड़ी लाश से बदबू आ रही थी, फिर भी किसी ने ना तो इसके उपर कपड़ा डाला और ना ही अस्पताल ने इसकी कोई सुध ली...कई बार के फोन के बाद आखिरकार पुलिस घटनास्थल पर आई और इस लाश को सड़क से हटाकर अस्पताल के भीतर ही मर्चुरी में डाल दिया...साथ ही इसके बारे में पता कर परिजनो को भी मरने की खबर पहुंचा दी गई।
सड़क पांच घंटों के दौरान जिस तरह से हर राहगीर ने अपनी नाक बंद कर यहां से जल्दी गुजरने में भलाई समझी उससे यही लगा की मानवता शर्मसार हो गई है और किसी के दिल में कोई भी करुणा नहीं है, वहीं अस्पताल प्रबंधन को इस एक मौत से कोई फर्क नहीं पड़ा....पुलिस आई और अपना काम निपटाकर चलती बनी...आखिरकार इस व्यक्ति को अस्पताल में जगह मिल ही गई, लेकिन जीते जी इलाज के लिए नहीं बल्कि मरने के बाद पोस्टमार्टम के लिए...
काश...सुविधाएं देने का दावा करने वाले इसे अमल में भी लाते...

Wednesday 7 April 2010

नक्सलवाद का असली चेहरा.........


छ्त्तीसगढ़ सरकार ने नक्सलियों पर नकेल कसने के लिए जन सुरक्षा अधिनियम के नाम से एक एसा कानून बनाया जिसमें नक्सलियों से संबंध होने के शक पर भी पुलिस के पास ये अधिकार है कि वो संबंधित व्यक्ति को बिना किसी रिपोर्ट या सबूत के आधार पर गिरफ्तार करके जेल भेज सकती है, कई बड़ी हस्तियां इस अधिनियम की चपेट मे भी आये...इसके अलावा पत्रकारों से परेशान रहने वाली पुलिस ने इस कानून को पत्रकारों के प्रति भी हथियार के रुप में इस्तेमाल किया....नतीजा नक्सलियों की जो खबरें प्रेस के माध्यम से बाहर आती थीं, वो भी बंद हो गयी और नक्सलियो के द्वारा आमंत्रण मिलने के बाद भी प्रेस ने नक्सलियों से कन्नी काटना शुरु कर दिया और रही सही सूचनाएं और सरकार से बातचीत करने का एक बीच का रास्ता भी जाता रहा.......

खैर ये तो पुरानी बात हुयी.....लेकिन छः अप्रेल को दंतेवाड़ा के चिंतलनार में जो कुछ भी हुआ उसकी पृष्ठभूमि में भी जरुर ये बातें छिपी होंगी....

सभी को याद होगा की चिंतलनार हमले के कुछ घंटे पहले ही केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम ने नक्सलियों को कायर करार दिया था....जिसके बाद चिंतलनार में नक्सलियों ने सीआरपीएफ के ७६ जवानों को मौत के रास्ते में ढकेल दिया.........इस घटना से अब एक बात तो साफ है कि सरकार को नक्सलवाद से अब आर पार की लड़ाई के लिए तैयार हो जाना चाहिये, क्योंकि अब नक्सलवाद का स्वरुप वैसा नहीं है जैसा की १९६७ में नक्सलबाड़ी मे चारु मजूमदार और कानू सान्याल ने शुरु किया था.........तब मामला विकास और गरीबी से जुड़ा था, लेकिन अब नक्सलवाद का मतलब आतंक, रंगदारी और देशद्रोह हो चुका है.... एक तरफ जहां देश आतंकवाद से जूझ रहा है वहीं दूसरी तरफ देश के भीतर अपने ही लोग जब विद्रोह पर उतर जायें और विद्रोही बनकर नक्सलवाद के रुप में देश के ही खिलाफ जंग में उतर जायें तो स्थिति को काबू करने में मुश्किलें आना लाज़मी है......

आंकड़ों की मानें तो देश के २० राज्यों के २२० जिलों में नक्सलवाद ने अपना पैर पसार लिया है, ये हिस्सा देश के भूभाग का कुल ४० फीसदी हिस्सा है, जो ये साबित करता है कि देश में नक्सलवाद का फैलाव यूं ही नहीं हुआ बल्कि इसका फैलाव एक सोची समझी रणनीति के तहत किया गया है......चिंतलनार में एक तरफ जवानों के पास जहां देशी हथियार थे तो वहीं नक्सलियों ने चीन के बने अत्याधुनिक हथियारों से हमला किया, नतीजा ये की मरने वाले जवानों की संख्या ७६ हो गयी लेकिन नक्सलियों में से किसी के भी घायल होने की खबर नहीं आयी....

जगदलपुर में शहीदों को श्रद्धांजली देते वक्त गृहमंत्री चिदंबरम की आंखें भर आयीं और उन्होंने आने वाले तीन सालों में नक्सलवाद को खत्म कर देने की बात कही है॥लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या नक्सलवाद की समस्या इतनी छोटी है जितनी की सरकार सोच रही है.......ये सवाल इसलिए उठता है क्योंकि अभी तक नक्सलवाद का असली चेहरा कहीं छिपा हुआ था जो अब दंतेवाड़ा में सबके सामने आ गया है, ये चेहरा ना केवल विकृत है बल्कि विभत्स सोच के साथ अपने मंजिल की तरफ भी धीरे धीरे बढ़ रहा है.........

Thursday 14 January 2010

डीपाडीह और सामत सरना.......

छत्तीसगढ़ मे पर्यटन की अपार संभावनाएं है......प्रदेश का प्रत्येक कोना अपने आप मे एक विरासत को समेटे हुए है......इसी विरासत की कुछ कड़ियां छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल क्षेत्र सरगुजा मे हैं......सरगुजा मे ना सिर्फ कुदरत के बनाये स्वाभाविक जलप्रपात हैं बल्कि पुरातत्व की भी वो निशानियां हैं जो शायद ही कहीं नजर आयें.....
छत्तीसगढ़ को फुलऑफ नेचर कहा जाता है...फिर चाहे वो आदिवासी सभ्यता हो,राष्ट्रीय अभ्यारण्य हो,नैसर्गिक जल प्रपात हो या फिर खजुराहो के समान आदिमकाल की प्रतिमाये हो...इनमें से भी पर्यटन की दृष्टी से आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र सरगुजा का अपना एक विशेष स्थान है...कभी दक्षिण कौशल का भूभाग रहा सरगुजा आज छत्तीसगढ़ के लिये अनमोल धरोहर है...जो अपने आप में एक अलग इतिहास को समेटे हुये है....सरगुजा में ना सिर्फ वन संपदा की भरमार है बल्कि प्रकृतिक रुप से भी ये पहाडियों से घिरा हुआ है...सरगुजा के मैनपाट को छत्तीसगढ़ का शिमला कहते है...इसके अलावा तमोर पिंगला अभ्यारण्य, केंदई जल प्रपात और छिंन्नमस्ता मां महामाया की नैसर्गिक सुंदरता देखते ही बनती है...
सरगुजा संभाग मध्यप्रदेश,उत्तरप्रदेश और झारखंड की सीमाओं को छत्तीसगढ़ से जोड़ता है...ये सीमाये सरगुजा के खासियत के अलावा नक्सल प्रभावित होने की वजह से कभी कभी नुकसान दायक भी साबित होती है...लेकिन सरगुजा किसी भी तरह के मुसीबतों का सामना करने को हमेशा ही तैयार रहा है....भगवान राम सीता और लक्ष्मण की इस नगरी पर भगवान शिव की आराधना राजाओं द्वारा की जाती रही है...जिसका उदाहरण डीपाडीह के सामंत सरना मंदिर से मिलती है....9वीं सदी से लेकर 13वी सदी के अवशेषों को अपने भीतर समेटे हुये डीपाडीह भारत के इतिहास को एक नई दिशा प्रदान करता है...साथ ही सरगुजा के वैभवशाली प्रभाव को भी दर्शाता है...डीपाडीह प्राचीन काल में भगवान शिव के आराधना का एक बडा केन्द्र था...साथ ही विभिन्न देवताओं की प्रतिमा ये बताती है कि कलचुरी और सामंती राजा भगवान शिव के बहुत बड़े उपासक थे....
सरगुजा के पर्यटन स्थलों में डीपाडीह का ना सिर्फ सभ्यता की निशानी माना जाता है बल्कि इसका इतिहास भी अतीत के पन्नों में ही छिपा रह गया....स्थानीय किवदंती की माने तो ये सामंत राजाओं की देव स्थली थी...और 9 वीं 10 वीं सदी में इस जगह की स्थापना हुयी थी....

कन्हर,गलफुल्ला और सूर्या नदी के संगम क्षेत्र में स्थित डीपाडीह प्राचीन काल में भव्य मंदिरों का नगर था....डीपाडीह का शाब्दिक अर्थ होता है...ऊंचाई पर बसा हुआ प्राचीन भग्न सन्निवेश....डीपाडीह के लगभग 1 किमी की परिधी में फैले हुये अवशेषों से साफ पता चलता है कि लगभग 8वीं सदी से लेकर 13वीं सदी तक ये जगह एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक कला केन्द्र के रुप में विकसित था...डीपाडीह की उत्पत्ती के बारे में प्राचीन इतिहास के अभिलेखों में भी कोई खास उल्लेख नही है....माना जाता है कि यहां पर सामंत राजा और पाटलीपुत्र के राजा टांगीनाथ के बीच भयानक युद्ध हुआ था...युद्ध में सामंत राजा हार गये जिन्होनें तालाब में कूदकर अपनी जान दे दी....
डीपाडीह की ये स्थानीय किवदंती पाटलीपुत्र के पालवंश के शासकों के आक्रमण और आधिपत्य का परिचायक है...माना जाता है कि डीपाडीह सामंत राजाओं की शिव आराधना का केन्द्र था...जहां भगवान शिव के विशालकाय मंदिर के साथ सैकड़ो छोटे छोटे मंदिर और दिवी देवताओं की प्रतिमायें स्थित है....सामंत राजा की मौत के बाद पाल वंश के शासक ने इस देवस्थल पर कब्जा किया और फिर समय के साथ सबकुछ जमीदोज हो गया....सन् 1988 में जब पुरातत्व विभाग की नजर यहां पर पड़ी तो पहाड़ के टीले में नंदी की ये प्रतिमा और सामंत राजा की ये प्रतिमा ही दिखायी दे रही थी....जैसे जैसे खुदाई होती गयी....डीपाडीह का इतिहास भी सामने आता गया....

सरगुजा में यूं तो पर्यटन की अपार संभावनायें है...लेकिन इनमें से डीपाडीह की खूबसूरत संरचना की बात ही कुछ और है....नदी के किनारे,पहाड़ों के बीच में और तालाब के साथ जुड़ी हुयी सदियों पुरानी प्रतिमायें भारत का इतिहास बताने के साथ ही पर्यटन के नये आयाम भी तय करती है....

छत्तीसगढ़ का जनजातीय बाहुल्य जिला सरगुजा के सीमांत क्षेत्र में बसा डीपाडीह पुरा संपदा के लिहाज से छत्तीसगढ़ का सबसे समृद्ध और महत्तवपूर्ण एतिहासिक स्थल है...चारों ओर से पहाड़ी श्रंखला और सरना के वृक्ष के जंगलों से घिरा हुयी ये जगह प्राकृतिक सौंदर्य के लिहाज से भी बेजोड़ है...
डीपाडीह अंबिकापुर,कुसमी मार्ग पर 72 किलोमिटर की दूरी पर स्थित है...सन् 1988 में डीपाडीह के प्राचीन पत्थरों को हजारों जाने और फिर मिट्टी की खुदाई के बाद यहां से अनेक प्राचीन और दुर्लभ कलाकृतियां दुनिया के सामने निकलकर आयी...

डीपाडीह अब एक महत्वपूर्ण पुरावत्व और पर्यटन केन्द्र के रुप में प्रसिद्ध है....डीपाडीह के इस मंदिर को सामंत सरना के नाम से जाना जाता है......यहां पर अलग अलग समूहों में कई मंदिरों के खंडित अवशेष है....लेकिन इन सबमें ये शिव मंदिर और अनेक प्रकार के छोटे बड़े आकार के मंदिर स्थित है....सामंत सरना के प्रमुख शिव मंदिर के प्रवेश द्वार की कलाकृति बेहद ही कलात्मक है....जिसमें लक्ष्मी विराजमान है...
छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक इतिहास के नवनिर्माण में डीपाडीह से ज्ञात स्थापना कला शैली,मूर्ति शिल्प और अभिलेखों का विशेष महत्व है...यहां की मूर्तियों को सहेजकर मूर्तिशाला में रखा गया है....इनमें से भैरव,ब्रहमा,कालमहेश्वर,गणेश,सूर्य और चामुंडा भाव महिमा के लिहाज से बेहद ही संतुलित दिखायी देती है....डीपाडीह के प्राचीन स्मारक स्थल राजा शासन के द्वारा संरक्षित है और इसके विकास और सुंदरता के साथ सुरक्षा के लिहाज से भी लगातार प्रयास किये जा रहे है...

डीपाडीह के सामंत सरना की सबसे बड़ी खासियत भगवान शिव का मंदिर और उनके द्वारपाल है....शायद ही एसा कही देखने को मिला हो कि मंदिर के चारों कोनो में चार अलग अलग देवता विराजमान हो...सामंत सरना में एसी ही संरचना खुदाई के बाद मिली है...इसके साथ ही यहां का सामंती इतिहास भी पर्यटकों को अपनी तरफ खींच लाता है...
डीपाडीह में पर्यटन की संमावजायें सन् 1989 में तलाशी गयी थी जब नंदी की इस प्रतिमा के सामने खुदाई की गयी और वहां से ये विशाल शिवलिंग मिला...जैसे जैसे पत्थर और मिट्टी हटाते गये इतिहास के झरौखों से निकलकर ये वैभवशाली प्रतिमाये भी 20वीं सदी में सबको दिखने लगी...तकरीबन एक दशक की खुदाई के बाद पुरातत्व विभाग ने यहां के मंदिरों को चार समूहों बांट दिया...इनमें सबसे पहला और महत्वपूर्ण समूह है सामंत सरना...इस समूह में एक विशाल खंदिव शिवमंदिर,चामुंड्डा मंदिर और छोटे बड़े आकार के पंतीबद्ध मंदिर स्थित है...इस मंदिर के द्वार पर गंगा और यमुना नदी देवियां खड़ी है...मंदिर में मंडप के एक कोनं में मोर की सवारी करते कार्तिकेय,दूसरी तरफ गणेश,तीसरी तरफ सोलह भुजी विष्णु और चौथी तरफ महिषासुर मर्दिनी मां नवदुर्गा की प्रतिमा स्थित है...जो 10वी शताब्दी की शिव महिमा को खुद ही वर्णित करती है....

प्राचीन मंदिरों का दूसरा समूह बीरजा टीला के नाम से जाना जाता है इस समूह में सूर्य देवता को प्रमुख माना गया है....इस मंदिर के पास ही तात्कालीन आवासीय मठों के अवशेष भी मौजूद है...तीसरे समूह के रुप में रानी पोखर मंदिर समूह है...इसमें चार मंदिर थे...लेकिन अब सिर्फ चबूतरे ही शेष रह गये है...पुरानी किवंदती के अनुसार इसी तलाब में तीन रानियों ने सामूहिक जल समाधि ली थी....इसके अलावा चौथे समूह में उरांव टोला मंदिर समूह है जिसके निर्माण 8वीं सदी का माना जाता है...यहां पर गडे हुये स्तंभों में देव प्रतिमाये,मिथुन युगल और नायिकाओं की प्रतिमाये अंकित है....
भगवान शिव के इस विशाल मंदिर के पास ही वर्गकार चबूतरे पर चमुण्डा मंदिर के भग्न अवशेष स्थित है...सोमवंशी,बंगाल और मगध के पालवंशी राजाओं के अलावा त्रिपुरी के कलचुरी राजाओं के बनवाये गये अवशेषों का भी इस जगह पर भरमार है...माना जाता है कि प्राचीन काल में इन मूर्तियों का निर्माण भी यही पर होता था...

दक्षिण कौसल की अमुल्य पुरा सम्पदा से संपन्न और गौरवमय इतिहास से परिपूर्ण डीपाडीह की सांस्कृतिक विरासत भारतीय कला के इतिहास का महत्वपूर्ण अध्याय है...यही वजह है कि पर्यटक डीपाडीह में खिंचे चले आते है...डीपाडीह ने सार्थिक सुंदरता और प्राकृतिक काया को देखकर हर कोई इसे सरगुजा का सर्वेश्रेठ पर्यटन स्थल कहता है....

रामायण और महाभारत जैसे महान ग्रंथों में भी सरगुजा का उल्लेख है....दक्षिण कौशल का ये भूभाग पाटलीपुत्र से जगन्नाथपुरी तक जाने का मुख्य मार्ग था....साथ ही पुराणों के अनुसार भगवान राम ने अपने 14 सालों के वनवास का कुछ समय सरगुजा में भी बिताया था...
लगभग 22 हजार 237 वर्ग फीट में फैला सरगुजा मूल रुप से आदिवासी पंडो पहाड़ी कोरवा जैसी जनजातियों के लिये जाना जाता है...सरगुजा का 50 फीसदी हिस्सा जंगलों और पहाड़ो से घिरा हुआ है...इन्हीं पहाड़ो के बीच शंकरगढ़ से 14 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है डीपाडीह जो पर्यटकों के आकर्षण का एक बड़ा केन्द्र है....

सरगुजा को प्राचीन काल से ही देवताओं की स्थली माना जाता है....इसकी वजह भी है...सरगुजा के प्रत्येक कोने में एक बड़े देवता का मंदिर है...फिर चाहे वो अंबिकापुर में मां महामाया हो,कुदरगढ़ में मां दुर्गा हो या फिर उदयपुर में रामसीता गुफा हो........साथ ही डीपाडीह का ये प्राचीन शिवमंदिर तो अपने आप में एक विरासत को समेटे हुये है ही....यही वो खूबियां है जो ना सिर्फ पर्यटकों को यहां पर खींच लाती है बल्कि उन्हें दुबारा लौटकर आने को भी मजबूर करती हैं कि काश.....................